आज ज़्यादातर रावण एक सिर वाला ही दिखता है। सब समय का खेल है। कभी दस सिरों से अट्टहास करता था। आज एक ही मुँह से पिपहरी जैसी आवाज़ निकलती है। समय बदला, परिस्थितियाँ बदलीं, लोगों का नज़रिया बदला, रहन-सहन के तौर-तरीक़े बदले और देखते-देखते सब कुछ बदल गया। हाँ, तो इसी बीच बदलने के इस खेल में त्रेतायुग के रावण ने भी ख़ुद को बदल लिया। हालाँकि वह शुरू से ही ख़ुद को बदलने में माहिर था। उसके सीता-हरण में साधुवेश धरने की कथा तो सबको पता है। समय के साथ ख़ुद को एडजस्ट और अपडेट रहने की उसकी पुरानी आदत है। कलयुग में बहुतेरे अत्याचारी रूप बदलने की उससे प्रेरणा लेकर सफ़ेदपोश और न जाने किन-किन पोशों में आ गए हैं।
ख़ैर रावण के मामले में यह बदलाव ज़रूरी भी था। अब परंपरा के नाम पर कोई कब तक त्रेतायुग की निशानियों को ढोता फिरे। सो रावण ने दस मुँह और अपने बीस हाथों वाले रूप को बदल के भद्र पुरुष का रूप धर लिया। भई कम्फ़र्ट के ज़माने में दस सिरों को ढोते रहना किसको अच्छा लगेगा? रावण अहंकारी था, पर बेवुक़ूफ़ नहीं। आज के ज़माने में जब हर ऐरा-ग़ैरा समय के साथ ख़ुद को अपडेट रखता है, तो ऐसे में शिवतांडव स्तोत्र का रचयिता प्रकांड विद्वान दशानन से समय के साथ अपडेट न रहने की उम्मीद रखना सरासर बेवुक़ूफ़ी होगी।
बात यह नहीं कि रावण किस रूप में जँचता है, बात समय के साथ चलने की है। दस सिर तो रावण आज रख ले, लेकिन वही है न कि फिर उनके लिए उतना ही खान-पान की व्यवस्था भी की जाय, जो कि आज के ख़र्चीले दौर में एक मुश्किल चीज़ है। मुँह के अपने ख़र्चे होते हैं, तिस पर लंकापति के मुँह के ख़र्चे।
समय-समय पर मुँह को ख़ुश्बू से तर रखने के लिए दस जर्दा वाले बढ़िया बनारसी पान की व्यवस्था रखना भी आज के दौर में क्या इतना सहज है, जबकि आय के बहुत कम स्रोत बचे हों। पिटनी तमाखू रावण खाता न था, कारण लड़ाई-झगड़े के शौक़ के चलते रावण प्रायः युद्धरत ही रहता था बल्कि ज़्यादा सच कहें तो वह झगड़ा मोल लेने के चक्कर में चोरी-चकारी, अपहरण और फिरौती तक कर लेता था।
युद्धप्रियता के चलते वह हर उस समझौते के ख़िलाफ़ था जो किसी भी तरह के युद्ध विराम की सम्भावना जगाए। अब आप ही बताइए कि ऐसे में जबकि युद्ध चल रहा हो, वह अपने हाथों से तलवार भाँजे या पिटनी तमाखू मले? दूसरे पिटनी तमाखू को मलने और फिर तीन या चार बार पीटने से जो भभक उठती है, उससे छींके आने की आशंका रहती है। अब असगुन होगा सो तो होइबै करेगा लेकिन असली बात यह है कि छींक आने से आँखें भी बंद हो जाती हैं। अब युद्धक्षेत्र में जहाँ हर क्षण सजग रहना पड़ता है, वहाँ एक क्षण के लिए भी आँखों का बन्द होना ख़तरे से ख़ाली नहीं होता। पता चला कि उधर रावण की आँखें मिची नहीं कि इधर कोई दशरथपुत्र उनकी नाभि में तीर घुसेड़ गया। सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना घटी। और वैसे भी दस सिरों को लगाए घूमने का मतलब दस झंझटों को साथ लिए फिरना। जुओं का ख़तरा तो हमेशा ही रहता है, इसके अलावा बीस कंघियों और तेल-फुलेल की व्यवस्था करने का सरदर्द सो अलग। तब का ज़माना और था! अब महँगाई चरम पर है। ऐसी भीषण महँगाई में अपने दस सिरों के लिए सोने के मुकुट का जुगाड़ कर पाना कोई हँसी-खेल नहीं। क्या अपने दस सिरों के लिए स्वर्ण मुकुट और बीस कुंडल न बनवा पाने की शर्मिंदगी न होगी उसे! अब साल भर बीस आँखों में बरेली का सुरमा ओंगना क्या सहज रह गया है! कहने वाली बात नहीं रावण ने अपने ख़र्चों में भारी कटौती की है।
रावण की जगह अपने को रखकर देखिए तब पता चलेगा महँगाई का दर्द! मगर वही है न कि लोगों की आदत होती है दूसरों के फटे में टाँग अड़ाने की। बेहया दशानन तक का लिहाज़ नहीं करते। आप ही बताइए बिना मुकुट और कुंडल के रावण कैसा लगेगा!! यक़ीन मानिए कोई मनबै नहीं करेगा उसे रावण। तो ऐसी बेइज्जती से का फायदा? और तो और मंदोदरी तक भाव नहीं देगी उसे।
इसलिए रावण की मजबूरी को समझें, उसकी तब की आर्थिक मज़बूती पर ना जाएँ। उसके पास तो नेहरू द्वारा बनवाए पी.एस.यू. भी नहीं, जो वो बेचकर कुछ कमाई कर सके। वो आपके अच्छे लगने के लिए अपनी जेब की लंका नहीं लगा सकता। महँगाई कोई रावण की रिश्तेदार तो नहीं जो उसका लिहाज़ करे।
इसके अलावा विद्वान रावण अतीतजीवी नहीं कि जो अपने अतीत से ही चिपका रहे। वह वास्तव में भविष्यजीवी है। रावणसंहिता जैसी भविष्यफल बताने वाली किताब को लिखने वाला रावण क्या युग के अंतर को न समझेगा? उसे ख़ूब पता है कि वह समय और था, यह समय कुछ और है। वह राजतंत्र का युग था जबकि आज लोकतंत्र का ज़माना है। तब सभी मुँह राजा के मन की बात बोलते थे, पर आज लोकतंत्र के ज़माने में हर मुँह अपने मन की बातें बोलने को बेचैन है। अब दस मुँह, दस तरह की बातें। कोई एक राय ही नहीं। वह और समय था जब रावण की ज़ुबान से अलग बोलने वाले विभीषण को देश निकाला दे दिया गया था। अब तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर रावण ख़ुद अपने दस मुँहों तक को चुप नहीं करा सकता। जब दसों के दस, मन की बातें करेंगे तो रावण के बात की क्या मर्यादा रहेगी? इसलिए यह ख़्वा-मख़्वाह फ़र्ज़ी की बात है कि रावण अब पहले जैसा रावण नहीं रहा। दूसरे रामानंद के रामायण के सीरियल के चलते अब सब रावण की कमज़ोरियों को जान गए हैं। सो रावण से भी बड़े वाले आज राम की फोटो की आड़ ले रावण को धमकाते रहते हैं। रावण दहन प्रायः ऐसे ही लोग करते हैं। रावण को इन कलजुगियों से भी ख़ुद को बचाना है और अपनी बची-खुची भी बचानी है। ऐसे में विद्वान दशानन को जब मतिमंद यह सलाह देते हैं कि उसे ये करना चाहिए, उसे वो करना चाहिए, सुनकर दिक्क आती हैं। अरे भाई रावण को अपनी स्थिति/परिस्थिति ज़्यादा पता है या आपको। बेवजह किसी के जाती मामलों में घुसरपंच बनना ठीक नहीं। अब रावण को इतना भी परवश न समझो कि वह अपने मामलों में भी आपसे राय लेता फिरे।”
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