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गीता माहात्म्य / सार - अध्याय-10 (विभूतियोग) (Geeta Saar Chapter -10) - Sunil Learning Point

गीता के दशवें अध्याय के माहात्म्य
Geeta Saar Chapter -4 - Sunil Learning Point
Geeta Saar Chapter -10- Sunil Learning Point

भगवान शिव कहते हैं:- देवी! अब तुम दशवें अध्याय के माहात्म्य की परम पावन कथा सुनो, जो स्वर्गरूपी दुर्ग में जाने के लिए सुन्दर सोपान और प्रभाव की चरम सीमा है।


काशीपुरी में धीरबुद्धि नाम से विख्यात एक ब्राह्मण था, जो मेरी प्रिय नन्दी के समान भक्ति रखता था, वह पावन कीर्ति के अर्जन में तत्पर रहने वाला, शान्त-चित्त और हिंसा, कठोरता और दुःसाहस से दूर रहने वाला था, जितेन्द्रिय होने के कारण वह निवृत्ति-मार्ग में स्थित रहता था, उसने वेद-रूपी समुद्र का पार पा लिया था, वह सम्पूर्ण शास्त्रों के तात्पर्य का ज्ञाता था, उसका चित्त सदा मेरे ध्यान में संलग्न रहता था, वह मन को अन्तरात्मा में लगाकर सदा आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया करता था, अतः जब वह चलने लगता, तब मैं प्रेम-वश उसके पीछे दौड़-दौड़कर उसे हाथ का सहारा देता रहता था। यह देख मेरे पार्षद भृंगिरिटि ने पूछाः- भगवन! इस प्रकार भला, किसने आपका दर्शन किया होगा? इस महात्मा ने कौन-सा तप, होम अथवा जप किया है कि स्वयं आप ही पग-पग पर इसे हाथ का सहारा देते रहते हैं?

भृंगिरिटि का यह प्रश्न सुनकर मैंने कहा एक समय की बात है – कैलास पर्वत के पार्श्वभागम में पुन्नाग वन के भीतर चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से धुली हुई भूमि में एक वेदी का आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था, मेरे बैठने के क्षण भर बाद ही सहसा बड़े जोर की आँधी उठी वहाँ के वृक्षों की शाखाएँ नीचे-ऊपर होकर आपस में टकराने लगीं, कितनी ही टहनियाँ टूट-टूटकर बिखर गयीं, पर्वत की अविचल छाया भी हिलने लगी, इसके बाद वहाँ महान भयंकर शब्द हुआ, जिससे पर्वत की कन्दराएँ प्रतिध्वनित हो उठीं, तदनन्तर आकाश से कोई विशाल पक्षी उतरा, जिसकी कान्ति काले मेघ के समान थी, वह कज्जल की राशि, अन्धकार के समूह अथवा पंख कटे हुए काले पर्वत-सा जान पड़ता था, पैरों से पृथ्वी का सहारा लेकर उस पक्षी ने मुझे प्रणाम किया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणों में रखकर स्पष्ट वाणी में स्तुति करनी आरम्भ की।


पक्षी बोलाः- देव! आपकी जय हो, आप चिदानन्दमयी सुधा के सागर तथा जगत के पालक हैं, सदा सदभावना से युक्त और अनासक्ति की लहरों से उल्लसित हैं, आपके वैभव का कहीं अन्त नहीं है, आपकी जय हो, अद्वैतवासना से परिपूर्ण बुद्धि के द्वारा आप त्रिविध मलों से रहित हैं, आप जितेन्द्रिय भक्तों को अधीन अविद्यामय उपाधि से रहित, नित्य-मुक्त, निराकार, निरामय, असीम, अहंकार-शून्य, आवरण-रहित और निर्गुण हैं, आपके भयंकर ललाट-रूपी महासर्प की विष ज्वाला से आपने कामदेव को भस्म किया, आपकी जय हो।

आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से दूर होते हुए भी प्रामाण स्वरूप हैं, आपको बार-बार नमस्कार है, चैतन्य के स्वामी तथा त्रिभुवनरूपधारी आपको प्रणाम है, मैं श्रेष्ठ योगियों द्वारा चुम्बित आपके उन चरण-कमलों की वन्दना करता हूँ, जो अपार भव-पाप के समुद्र से पार उतरने में अदभुत शक्तिशाली हैं, महादेव! साक्षात बृहस्पति भी आपकी स्तुति करने की धृष्टता नहीं कर सकते, सहस्र मुखों वाले नागराज शेष में भी इतना चातुर्य नहीं है कि वे आपके गुणों का वर्णन कर सकें, फिर मेरे जैसे छोटी बुद्धिवाले पक्षी की तो बिसात ही क्या है?

उस पक्षी के द्वारा किये हुए इस स्तोत्र को सुनकर मैंने उससे पूछाः- "विहंगम ! तुम कौन हो और कहाँ से आये हो? तुम्हारी आकृति तो हंस जैसी है, मगर रंग कौए का मिला है, तुम जिस प्रयोजन को लेकर यहाँ आये हो, उसे बताओ।"


पक्षी बोलाः- देवेश! मुझे ब्रह्मा जी का हंस जानिये, धूर्जटे! जिस कर्म से मेरे शरीर में इस समय कालिमा आ गयी है, उसे सुनिये, प्रभो! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं, अतः आप से कोई भी बात छिपी नहीं है तथापि यदि आप पूछते हैं तो बतलाता हूँ, सौराष्ट्र (सूरत) नगर के पास एक सुन्दर सरोवर है, जिसमें कमल लहलहाते रहते हैं, उसी में से बाल-चन्द्रमा के टुकड़े जैसे श्वेत मृणालों के ग्रास लेकर मैं तीव्र गति से आकाश में उड़ रहा था, उड़ते-उड़ते सहसा वहाँ से पृथ्वी पर गिर पड़ा।

जब होश में आया और अपने गिरने का कोई कारण न देख सका तो मन ही मन सोचने लगा 'अहो! यह मुझ पर क्या आ पड़ा? आज मेरा पतन कैसे हो गया?' पके हुए कपूर के समान मेरे श्वेत शरीर में यह कालिमा कैसे आ गयी? इस प्रकार विस्मित होकर मैं अभी विचार ही कर रहा था कि उस पोखरे के कमलों में से मुझे ऐसी वाणी सुनाई दीः 'हंस! उठो, मैं तुम्हारे गिरने और काले होने का कारण बताती हूँ,' तब मैं उठकर सरोवर के बीच गया और वहाँ पाँच कमलों से युक्त एक सुन्दर कमलिनी को देखा, उसको प्रणाम करके मैंने प्रदक्षिणा की और अपने पतन का कारण पूछा।

कमलिनी बोलीः- कलहंस! तुम आकाश मार्ग से मुझे लाँघकर गये हो, उसी पातक के परिणाम-वश तुम्हें पृथ्वी पर गिरना पड़ा है तथा उसी के कारण तुम्हारे शरीर में कालिमा दिखाई देती है, तुम्हें गिरा देख मेरे हृदय में दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमल के द्वारा बोलने लगी हूँ, उस समय मेरे मुख से निकली हुई सुगन्ध को सूँघकर साठ हजार भँवरे स्वर्ग लोक को प्राप्त हो गये हैं, पक्षिराज! जिस कारण मुझमें इतना प्रभाव आया है, उसे बतलाती हूँ, सुनो।


इस जन्म से पहले तीसरे जन्म में मैं इस पृथ्वी पर एक ब्राह्मण की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थी, उस समय मेरा नाम सरोजवदना था, मैं गुरुजनों की सेवा करती हुई सदा एकमात्र पतिव्रत के पालन में तत्पर रहती थी, एक दिन की बात है, मैं एक मैना को पढ़ा रही थी, इससे पतिसेवा में कुछ विलम्ब हो गया, इससे पतिदेवता कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया 'पापिनी! तू मैना हो जा,' मरने के बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई, तथापि पातिव्रत्य के प्रसाद से मुनियों के ही घर में मुझे आश्रय मिला, किसी मुनि कन्या ने मेरा पालन-पोषण किया, मैं जिनके घर में थी, वे ब्राह्मण प्रतिदिन विभूति योग के नाम से प्रसिद्ध गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्याय को सुना करती थी, विहंगम! काल आने पर मैं मैना का शरीर छोड़ कर दशम अध्याय के माहात्म्य से स्वर्ग लोक में अप्सरा हुई, मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्मा की प्यारी सखी हो गयी।

एक दिन मैं विमान से आकाश में विचर रही थी, उस समय सुन्दर कमलों से सुशोभित इस रमणीय सरोवर पर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतर कर ज्यों हीं मैंने जलक्रीड़ा आरम्भ की, त्यों ही दुर्वासा मुनि आ धमके, उन्होंने वस्त्रहीन अवस्था में मुझे देख लिया, उनके भय से मैंने स्वयं ही कमलिनी का रूप धारण कर लिया, मेरे दोनों पैर दो कमल हुए, दोनों हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अंगों के साथ मेरा मुख भी कमल का हो गया, इस प्रकार मैं पाँच कमलों से युक्त हुई, मुनिवर दुर्वासा ने मुझे देखा उनके नेत्र क्रोधाग्नि से जल रहे थे।


मुनिवर दुर्वासा बोलेः- 'पापिनी ! तू इसी रूप में सौ वर्षों तक पड़ी रह।' यह शाप देकर वे क्षणभर में अन्तर्धान हो गये कमलिनी होने पर भी विभूति-योगाध्याय के माहात्म्य से मेरी वाणी लुप्त नहीं हुई है, मुझे लाँघने मात्र के अपराध से तुम पृथ्वी पर गिरे हो, पक्षीराज! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने ही आज मेरे शाप की निवृत्ति हो रही है, क्योंकि आज सौ वर्ष पूरे हो गये, मेरे द्वारा गाये जाते हुए, उस उत्तम अध्याय को तुम भी सुन लो, उसके श्रवणमात्र से तुम भी आज मुक्त हो जाओगे, यह कहकर पद्मिनी ने स्पष्ट तथा सुन्दर वाणी में दसवें अध्याय का पाठ किया और वह मुक्त हो गयी, उसे सुनने के बाद उसी के दिये हुए इस कमल को लाकर मैंने आपको अर्पण किया है।

इतनी कथा सुनाकर उस पक्षी ने अपना शरीर त्याग दिया, यह एक अदभुत-सी घटना हुई, वही पक्षी अब दसवें अध्याय के प्रभाव से ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ है, जन्म से ही अभ्यास होने के कारण शैशवावस्था से ही इसके मुख से सदा गीता के दसवें अध्याय का उच्चारण हुआ करता है, दसवें अध्याय के अर्थ-चिन्तन का यह परिणाम हुआ है कि यह सब भूतों में स्थित शंख-चक्रधारी भगवान विष्णु का सदा ही दर्शन करता रहता है, इसकी स्नेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारी क शरीर पर पड़ जाती है, तब वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो, मुक्त हो जाता है तथा पूर्वजन्म में अभ्यास किये हुए दसवें अध्याय के माहात्म्य से इसको दुर्लभ तत्त्वज्ञान प्राप्त हुआ तथा इसने जीवन्मुक्ति भी पा ली है, अतः जब यह रास्ता चलने लगता है तो मैं इसे हाथ का सहारा दिये रहता हूँ, भृंगिरिटी! यह सब दसवें अध्याय की ही महामहिमा है।


भगवान शिव कहते हैं:- पार्वती ! इस प्रकार मैंने भृंगिरिटि के सामने जो पापनाशक कथा कही थी, वही तुमसे भी कही है, नर हो या नारी, अथवा कोई भी क्यों न हो, इस दसवें अध्याय के श्रवण मात्र से उसे सब आश्रमों के पालन का फल प्राप्त होता है।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

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गीता माहात्म्य / सार - अध्याय-10 (Geeta Saar Chapter -10) - Sunil Learning Point

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